कहानी : पिता की सीख

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कहानी : पिता की सीख
कहानी : पिता की सीख

 

पिता की सीख

नौकरी लगने के बाद बचत करने के बजाय लापरवाही से पैसे खर्च करने वाले व्यक्ति को जब पिता ने समझाया एक-एक रुपए का मॉल तब बदली उसकी सोच……

पिता की सीख

मै एक छोटे से गांव बडीला का निवासी हूं| मैं अपने गांव में अपने दादा, माता-पिता चाचा-चाची, भाइयों के साथ रहता था| संयुक्त परिवार में रहते हुए मेरे पूरे मनोयोग से में नौकरी के लिए तैयार कर रहा था| माता-पिता का आशीर्वाद और मेरी मेहनत की बदौलत कुछ समय पश्चात मुझे अध्यापक पद के लिए दिल्ली में चयनित कर लिया गया| घर में खुशी का माहौल तो था ही साथ में मैं भी अपनी सफलता को लेकर बेहद उत्साहित था| मेरा मासिक वेतन 30000 रुपये  था| चयनित पत्र में बताए गए समय के अनुसार मैंने विद्यालय आकर अपना पद संभाल लिया|

मेरे पिता किसान है तो बचपन से ही हम पिताजी की सीमित आय में ही गुजर बसर कर रहे थे|जैसे ही मैंने हाथ में पहली सैलरी आई, मेरे तो मानो पंख ही लग गए| मैं खूब खर्चा करने लगा| आए दिन दोस्तों के साथ पार्टी करना और 1 सप्ताह फिल्में देखने का प्लान तो यूं ही तय हो जाता था| इसके इलावा भी मैं बेवजह ही खर्च करता रहता| बाहर खरीदारी करने जाता तो 50-60 रुपये ऐसे ही छोड़ आता था| हर सप्ताह कपड़ों की खरीदारी के लिए चला जाता था| अब मेरी दिनचर्या में महगे कपडे और होटल का खाना जुड़ गया था| वहा भी  अगर मुझे खाना जरा सा भी पसंद नही आता तो बिना किसी गुरेज के छोड़ देता|  वेटर को भी बक्शीश में काफी रुपए दे देता| कुल मिलाकर अपना जीवन एक अमीर व्यक्ति की तरह जीने लग गया था मुझे लगता था कि जब मुझे कितना पैसा मिल रहा है तो अपनी मेहनत के पैसे पैसे को अपने ऊपर खर्च करने में क्या बुराई है|

लगभग 6 महीने बाद मै माता पिता के लाख मना करने के बाद भी उन्हें व भाइयों को घुमाने के लिए दिल्ली लेकर आया| 1 दिन परिवार के साथ खरीदारी करने गया और सब को उनकी पसंद के कपड़े दिला दिए मैंने गौर किया कि माता-पिता ने कुछ भी नहीं लिया| मैंने उन्हें बहुत कहा कि आप भी अपने लिए कुछ ले लो लेकिन दोनों मना करते रहे फिर मैंने भाई से पूछ कर मम्मी पापा के लिए कुछ कपड़े खरीद लिए|खरीदारी का कुल बिल 4999 रुपये हो गया था जब मैंने 5000 रुपये  दुकानदार को दिए और जाने लगा तो तब पिताजी बोले बेटा 1रुपये  रह गया है वह तो लेते जाओ इस बात को सुनकर मैंने एक नए  मिजाज के हिसाब से जवाब दिया,”रहने दीजिए पिताजी एक रुपैया ही तो है| एक रुपए में क्या होता है| मेरी बात सुनकर पिताजी को थोड़ा बुरा लगा मैंने उन्हें लाख समझाया पर वह नहीं माने और अंत में ₹1 लेकर ही घर के लिए रवाना हुए| मैं उनके इस व्यवहार से बेहद खींज रहा था| घर पहुंच कर मैंने पिता जी से पूछ ही लिया क्यों आपने एक रुपए के लिए दुकान को सिर पर उठा लिया था| मैं अब इतना तो कमा ही लेता हूं कि एक-एक रुपये के लिए अपना समय बर्बाद ना करु| मेरी बात सुनकर पिताजी मुस्कुरा कर बोले बेटा आज मैं तुम्हें एक रुपए की कीमत बताता हूं| तुम्हें पता है खेती हमारे परिवार की आमदनी का स्रोत रही है| हम किसान सुबह से शाम तक खेतों में काम करते हैं उसके बाद घर में कुछ खाने को आता है| तुम्हारे जन्म के पश्चात में और  मां सुबह  मैं और तुम्हारी मां सुबह से शाम तक दूसरों के खेतों में काम करते थे| कभी-कभी तुम्हें बिस्किट खिलाने के लिए भी एक एक रुपए उधार लेते थे| तुम्हें कोई परेशानी ना हो इसलिए हम दूसरों के खेतों में काम करके चार आना कमाते थे| इसलिए हर एक पैसे की कीमत को समझो और बर्बाद करने से पहले सौ बार सोचो|” यह बात सुनकर मेरी आंखों में आंसू आ गए और मैं पिताजी के गले में लग कर खूब रोया| उस दिन के बाद से मैंने अपने रहन-सहन में काफी बदलाव कर लिया और पैसे की एक-एक पाई की कीमत समझने लगा|

अपनी कहानी के माध्यम से मै यह कहना चाहता हूं कि भले ही हम आर्थिक रूप से कितनी ही सुद्र्ड  क्यों ना हो जाए हमें अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए और पैसे की कीमत को संज्ञान में रखना चाहिए|

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