कहानी : पुण्य

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पुण्य
पुण्य

 

  • पुण्य यह कहानी कश्मीर के एक निर्धन रामलाल की है जो जूते काटने बनाने का काम करके अपनी आजीविका काम आता था उसकी अपनी एक पुश्तैनी झोंपड़ी थी जहां उसके पुरखे पैदा हुए और भी भी वही जन्मा था उन दिनों कश्मीर का राजा था चंद्रापीड उसने एक देव मंदिर बनाने का संकल्प किया उसके लिए जिस भूमि की नाप जोख की गई उसमें उसकी झोंपड़ी भी पढ़ती थी मंत्रियों ने सोचा झोंपड़ी गिराकर उसके बदले में इसको दूसरी भूमि देने से काम चल जाएगा पर वह रामलाल आर गया कि मुझे तो वही झोपड़ी चाहिए जिसमें मैं और मेरे पुरखे रहते आए हैं यह मेरी माता है केवल भूमि का टुकड़ा नहीं मंत्री रुष्ट हुए उन्होंने उस की झोपड़ी गिरा देनी चाहिए किंतु राजा ने मना किया और कहा उसकी सहमति के बिना झोंपड़ी की भूमि ना लेना मंदिर बनाने के काम में बाधा बन गई भेजो काम प्रारंभ नहीं हो पाया यह देखकर वह रामलाल भी सोच में पड़ गया कि मंदिर बनाना मेरे कारण रुका यह तो बहुत बुरा हुआ मंदिर तो किसी एक व्यक्ति का नहीं होता उस में हर किसी को सहायता करनी चाहिए क्या करूं एक दिन वह राजा के सामने गया और कहा महाराज मंदिर बनाने में बाधक बन कर पाप नहीं लूंगा उससे तो मेरे पुरखों को भी पाप लगेगा आप ऐसा करें कि मेरे झोंपड़े पर पधारें और मुझसे वह भूमि मांगे मैं तुरंत दे दूंगा पर बैठूंगा नहीं वह भूमि मंदिर के लिए विनामूल्य दान करके मुझे भी पुण्य मिलेगा उसकी बात मंत्रियों को बुरी लगे इसकी यह दुष्टता की महाराज को भूमि दान करने चला है पर राजा रूठना हुआ वह अकेले ही उसकी झोंपड़ी पर पहुंचा और कहा मैं चंद्रापीड तुमसे यह भूमि दान में मांग रहा हूं मंदिर के लिए रामलाल बड़ा प्रसन्न उसने राजा का स्वागत करते हुए कहा महाराज मैं तो 1 दिन मारूंगा ही मंदिर सदा रहेगा रहेगा नाम प्रभु का मैंने यह भूमि दान की आपको और उसी दिन से देव मंदिर बनने का काम प्रारंभ हो गया सभी प्रसन्न हुए सभी ने राजा को सराहा और उस निर्धन दानी को भी फिर राजा ने चुपचाप उस निर्धन के लिए एक अच्छा घर बनाने की आज्ञा दें जब घर बन गया तब राजा ने उसे बुलाकर कहा अब तुम एक बात मेरी भी रख लो यह नया घर तुम्हारे लिए है इस में आकर रहो यह मैं दान नहीं दे रहा ना तुम पर कोई उपकार कर रहा हूं ना तुमने मांगा ही है बल्कि इस में रहना तुम्हारा अधिकार है मैं राजा की बात मान कर उसमें रहने लगा धन्य था वह निर्धन रामलाल और धन्य था वे राजा पुण्य

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