खसरा और जर्मन खसरा (measles-rubella)का टीकाकरण
मां-बाप को यह जानने का पूरा हक है कि इससे लाभ हो सकता है या के हानि
जब भी कोई दवा टीका या ऑपरेशन किया जाता है तो लिखती सहमति लेनी जरूरी होती है- अगर बालक हो तो उसे भी अपने और नाबालिक होने पर मां-बाप की सहमति लेनी कानूनी जरूरी होती है।कानून कहता है कि यह सहमति सिर्फ कागजी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, जब की दवा टीका या ऑपरेशन की पूरी जानकारी देकर ही ली गई हो।अखबारों की खबरों से पता लगा है कि भारत के 41 करोड बच्चों को अगले 1-2 सालों में और पंजाब के 7500000 बच्चों को इन्हीं एक दो महीनों में एम आर( मीज़ल और रूबेला खसरा और जर्मन खसरा) के टीके की दो खुराक के दी जाएगी।यह टीका 9 महीने से लेकर 15 साल के हर बच्चे को लगाना जरूरी है चाहे उसको पहले से ही टीके लगे हो पंजाब में अगले 4-6 हफ्तों में यह टीका लगभग 7500000 बच्चों को लगा दिया जाएगा।क्या इन बच्चों के मां-बाप से कोई लिखती सहमति ली गई है क्या ? कि मां-बाप को इन से लाभ और संभावित नुकसान बारे जानकारी दी गई हो क्या ? अध्यापक, आशा वर्कर और सेहत वर्कर बिना सहमति से ही टीके लगाने जा रहे हैं ? क्या यह मेडिकल अथिक्क्स (डॉक्टरी नैतिक नियमों) के विरुद्ध नहीं ? क्या कानूनी तौर पर ठीक है ?
कुछ जानकारी जो मां बाप को पता होनी चाहिए
पहले ही (1985 से) 9 महीने की उम्र पर खसरे का टीका हर एक बच्चे को लगाया जाता है।
तब यह कहा जा रहा था कि यह टीका सारी उम्र के लिए खसरा से बचा सकता है।फिर पता लगा कि यह तो सिर्फ 1-2 साल ही बचा सकता है फिर खसरा हो सकता है।|साल 2010 पर इसकी दूसरी खुराक एम.एम.आर [ मिएसल ,मम्पस और रूबेला खसरा,कन पेढे और जर्मन खसरा ] की शक्ल में 15 महीने की उम्र तक दी जाने लगी।यह कहा जाने लगा कि इस टीके के लगाने के उपरंत तीन बीमारियां[ खसरा, कन -पेढे और जर्मन खसरा] से उम्र भर के लिए निजात मिल जाएगी।|
यह एक ऐतिहासिक सच है कि वैक्सीन[ बीमारियों से बचाव और टीके] के निर्माताओं, डॉक्टरों और सरकारी संस्थाओं की ओर से वैक्सीन के बारे काफी जानकारी मां-बाप से गुप्त रखे जाते है। इस कमी को हम हर रोज देख रहे हैं कि मरीजों को बुद्धू बना कर उनकी जेबे काटी जा रही है।यह अब रोज का काम हो चुका है इस कमी को पूरा करने के लिए पश्चिमी देशों में मां बाप ने अपनी जत्थेबंदियां बना ली हैं।वह अपनी सुतंत्रता खोजे करते हैं और अपनियाँ वेबसाइट और साधनों के जरिए आपस में तालमेल करते हैं और इन खोजों के आधारित अपने बच्चों को वैक्सीनेशन लगाने या ना लगाने के लिए खुद निर्णय लेते हैं। उदाहरण के तौर पर अमेरिका में एक जत्थेबंदी है, निडर मां-बाप जो यह काम बखूबी निभा रहे हैं| ऐसी जत्थेबंदियां हमारे देश और हमारे सूबे में भी बननी चाहिए ताकि इस धोखाधड़ी और छीना झपटी से बचा जा सके।
आंकड़ों के आधार पर मां बाप को डराया जाता है कि बच्चों की सेहत मां-बाप को बेहद प्यारी होती है।डरे मां बाप अपने बच्चे को अनेक प्रकार के टीके बिना किसी जानकारी से लगवा लेते हैं।अब तक यह 20 से भी ऊपर हो गए हैं।मां-बाप को कहा जा रहा है कि अगर ज्यादा टीके लगाओ तो उनकी सेहत ज्यादा अच्छी होगी।जोकि झूठ है।
निर्माता कंपनियां, डॉक्टरों को बड़े लालच देकर ऐसे धुआंधार प्रचार करते हैं कि झूठ भी सच लगने लगता है-खसरा बड़ी खतरनाक बीमारी है इसका टीका सबके लिए जरूरी होना चाहिए कोई भी मां-बाप की सहमति की जरूरत नहीं-कानून होना चाहिए-जो टीका नहीं लगाएगा उसको जेल में बंद करो ऐसी अफवाहों को ठीक गलत सोचे बिना ही मां-बाप टीके लगवाए जाते हैं।सारे नियमों,नैतिकता और कानून की धज्जियां उड़ा दी गई हैं।
इस झूठ के कारण ही अमेरिका में एमएमआर में मम्प्ज को चुपचाप निकलके इस को एम.आर के तौर पर प्रस्तुत किया जा रह है।जबकि अनेक विज्ञानियों की खोजों में पाया गया है कि यह टीका सुरक्षित नहीं है।अमेरिका में यह टीका भारत से 20 साल पहले ही लगाए जा रहे हैं, पर अभी तक भी खतरे और कन-पेड़ों की बीमारियों पर काबू नहीं पा सके।जर्मन खसरा तो इतनी हल्की बीमारी है कि ज्यादा बार तो इसका मरीज को भी पता नहीं चलता।
जर्मन खसरा तो सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण है कि अगर कोई गर्भवती औरत को गर्भ धारण करने से पहले 3 महीने के दौरान हो जाए तो बच्चे में जन्म से खतरे की संभावना बढ़ जाती है।ऐसी स्थिति में यह टीका लड़कों को क्यों नहीं लगाया जा रहा है?लड़कियों को ही यह बचपन में क्यों लगाया जा रहा है?उनको गर्भधारण करने की उम्र में ही लगाया जाना चाहिए।अब तक विज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि टीके की बीमारी रोकने की समरथा सिर्फ अर्जी तौर पर ही होती है-जब तक औरत गर्भ धारण करने की उम्र में पहुंचेगी तब तक तो बचपन में लगे टीके का असर खत्म हो चुका होगा।अनेक खोजो ने एम.एम.आर. के टीके को दिमाग और नाड़ी तंत्र और ऑटिज्म के लिए जिम्मेदार ठहराया है।
टीके के बीच में खसरे के विषाणु वायरस जिंदा होते हैं-यह सिद्ध हो चुका है कि नालियों के द्वारा वह सीधा दिमाग तक पहुंचने की समृद्ध रखते हैं-जहां वे दिमाग को नुकसान पहुंचा सकते हैं।निर्माता कंपनी मारक ने अपने मैन्युअल में खुद माना है कि टीके के बीच में वायरस दिमाग और सुखमना नाड़ी को सोजिश करके उसको नुकसान पहुंचा सकती है।
बीमारियों की रोकथाम के लिए टीकाकरण की असरदयाइकता पर अनेक बार प्रश्न चिन्ह लगा चुके हैं।जिस पहुंच के तहत एम. एम. आर.का कारण बड़े पैमाने पर किया जा रहा है वह पहुच ही गलत सिद्ध हो चुकी है।दलीलें दी जाती है कि जब हम बड़े पैमाने पर किसी बीमारी के विरुद्ध टीकाकरण करते हैं तो वह लोग बीमारी की मार पर नहीं आएंगे-जिसके द्वारा बीमारी का फैलाव कम हो जाता है और बीमारी खत्म हो जाती है।सुनने में तो यह दलील बड़ी ही वजनदार लगती है।विज्ञानिक खोजो ने सिद्ध कर दिया है टीके की दी गई इम्युनिटी आधी अधूरी होती है और आरजी होती है जब तक की बीमारी की दी गई इमुनिटीआधी अधूरी होती और उम्र भर रही होती है।
पश्चिमी देशों में जैसे- जैसे मां-बाप ज्ञानवान हो रहे हैं वह अपने बच्चों को रोकने की बजाय खसरे से पीड़ित पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने के लिए भेजते हैं ताकि उनको भी खसरा हो जाए और वह उम्र भर इस बीमारी से जूझते रहे ।
यह कहना जाना-पहचाना सच है कि सेहतमंद बच्चे लिए खसरा एक साधारण बीमारी है जबकि इसके होने के बात उम्र भर के लिए बच्चा इस के डर से मुक्त हो जाता है खसरा सिर्फ कमजोर और उम्मीद कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए ही गंभीर लोग लेता है इस तरह के बच्चों के लिए अकेला खसरा ही नहीं वोटिंग वोटिंग और निमोनिया इससे भी ज्यादा खतरनाक होते हैं
अमेरिका की अपनी संस्था सी.डी.सी. अनुसार अमेरिका में पिछले 12 साल में खसरे से एक भी मौत नहीं हुई जबकि खसरे के इंजेक्शन के साथ 98 मौतें हो चुकी हैं।इस समय दौरान खसरे के इंजेक्शन के साथ अपंगता होने के 694 कि इस वैक्सीन एडवर्स इस रिपोर्टिंग सिस्टम दिल्ली रिपोर्ट हुए हैं।
विकासशील देशों में कुपोषण के शिकार बच्चों में, खसरे कारण होने वाली मौतें विकसित देशों के सेहतमंद बच्चों के मुकाबले दोस्तों 400 गुना ज्यादा हैं।खसरे के साथ गंभीर रुप में बीमारी होने पर और मृत्यु होने की संभावना का सीधा संबंध बच्चे के कुपोषण और सेहत के साथ है।जैसे-जैसे बच्चों की खुराक बढ़िया होती है वैसे वैसे ही खतरे की गंभीर शक्ल लेने की संभावना कम हो जाती है।
19वीं सदी में अमेरिका और इंग्लैंड में हर दूसरे साल खसरे की महामारी फैलती जा रही थी जिसमें 20% तक बच्चे निमोनिया और दुष्परिणामों के साथ मर जाते हैं।तब कुपोषण और गंदगी आम थी।
अंधाधुंध और झूठ के आधार पर प्रचार के पर पूरी मानवता को जताने की कोशिश की जा रही है कि टीकाकरण बहुत बढ़िया सेहत की चाबी है।जबकि सच तो यह है कि कुदरत की दी गई।रक्षा प्रणाली इम्यूनिटी सिस्टम को मजबूत करके ही हम संक्रामक बीमारियों और उनके गंभीर परिणामों से बच सकते हैं बीसवीं सदी के 7 वर्षों तक पहुंचते-पहुंचते यह दर एक परसेंट से भी कम हो गई जबकि खसरे का टीका 1968 में लगाया गया।कुपोषण और गंदगी की समस्याओं का समाधान होने पर ही खतरे से होने वाली मौतें बंद हो जाएगी।
कुदरत की दी गई रक्षा प्रणाली इम्यूनिटी सिस्टम बहुत ही संतुलित ढंग से काम करती है विज्ञानिक खोजो ने सिद्ध कर दिया है कि टीकाकरण से बहुत ज्यादा इंजेक्शन लगाकर नकली इम्युनिटी पैदा करने की कोशिशों पर हम क़ुदरती रक्षा प्रणाली का संतुलित खराब हो जाता है।जिसके कारण जिन बीमारियों की रोकथाम के लिए इंजेक्शन नहीं बने हैं वह ज्यादा होने लगती है नहीं तो ज्यादा गंभीर रूप धारण करने लगती है।इसलिए इंजेक्शनों की भरमार करने की बजाय सिर्फ कुछ को गंभीर बीमारियों तक ही सीमित रखना चाहिए।इंजेक्शन लगाएं या ना लगवाने का फैसला लेने का पूरा हक मां बाप का है।उनको फैसला लेने के लिए जो ज्ञान चाहिए उसकी एक झलक आम व्यक्ति की भाषा में रखने की कोशिश की गई हैं।
डा. अमर सिंह आजाद