अभी तो सिर्फ बिल का विरोध है…
तब तो वामपंथी समूह ने 2000 हिन्दू शरणाथियों का नरसंहार कर दिया था ।।
पश्चिम बंगाल की एक जगह है जहाँ गंगा की दो धाराएं हुगली और पद्मा समंदर में जाकर मिलती हैं। यहीं है एक सुनसान सा दलदली द्वीप मरीचझापी। इसी जगह पर तत्कालीन ज्योति बसु की वामपंथी सरकार ने हजारों हिन्दू शरणार्थियों को सिर्फ इसीलिए मार दिया था क्योंकि उन्होंने भारत के विभाजन के खिलाफ मतदान किया था।
इसकी कहानी शुरू होती है भारत के विभाजन से। भारत का विभाजन ऐसी दर्दनाक घटना है जिससे मिले घाव कभी भरे नहीं जा सकते। भारत जिसे मातृभूमि माना जाता है उसे टुकड़ों में बांट दिया गया। तत्कालीन नेताओं और जिहादी मानसिकता के लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए देश का विभाजन करा दिया।
विभाजन भारत के दोनों ओर हुआ था। पूर्व और पश्चिम। पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान। ट्रेन से भरकर लाशें आ रही थी। पश्चिमी पाकिस्तान के हिस्से में कुछ वक्त में स्थिति कुछ सामान्य हुई लेकिन पूर्वी क्षेत्र जलता रहा।
इसी वजह से विस्थापन की जो प्रक्रिया पश्चिम में थम चुकी थी वह पूर्व में लगातार होती रही। बांग्लादेश से धार्मिक रूप से उत्पीड़न झेलने के बाद बांग्लादेशी हिन्दू भारत में शरण लेने आते गए।
यह वही लोग थे जिन्होंने 1946 के मतदान के समय भारत के विभाजन के विरोध में मतदान किया था, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी ने विभाजन के पक्ष में मतदान किया था।
बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) से बाद में आने कारण लोगों को नागरिकता नहीं दी जा रही थी। 1971 के युद्ध के दौरान एक करोड़ से अधिक हिन्दू शरणार्थी भारत आए जिनमें अधिकतर दलित समुदाय से थे। उन्हें भारत सरकार ने कैम्पों में रखा और नागरिकता नहीं दी।
बांग्लादेश से आए शरणार्थियों में ज्यादातर बेहद गरीब परिवारों और दलित समुदाय से आते थे। गरीबों, दलितों, वंचितों और मजदूर वर्ग की पार्टी होने का दावा करने वाले वामपंथी दलों ने सत्ता में आने पर शरणार्थियों को नागरिकता देने का वादा किया।
1977 में सरकार आने के बाद वामपंथी दल ने इस बात को दोहराया भी। इसके बाद छत्तीसगढ़, दंडकारण्य, असम और अन्य क्षेत्रों में रहने वाले बांग्लादेशी हिंदुओं ने बंगाल की तरफ पलायन किया। लेकिन किसी तरह की सहायता ना होते देख उन्होंने सुनसान दलदली द्वीप मरीचझापी में अपना ठिकाना बनाया।
इसी जगह पर उन्होंने खेती शुरू की, विद्यालय शुरू किए और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की व्यवस्था की। लेकिन वामपंथी सरकार को 1947 में भारत विभाजन के विरोध में किए गए मतदान का बदला लेने की सनक ने इन हिन्दू शरणार्थियों के लिए मरीचझापी को “खूनी द्वीप” बना दिया।
100 से अधिक पुलिस जहाज और 2 स्टीमर भेजकर राज्य की कम्युनिस्ट सरकार ने द्वीप की पूरी घेरे बंदी कर दी। वहाँ से आवागमन के सारे रास्ते बंद कर दिए गए। द्वीप चारों तरफ से समुद्र से घिरा हुआ था, इसकी वजह से वहाँ पीने के पानी का एकमात्र स्त्रोत था। उसमें भी सरकारी आदेश के बाद जहर मिला दिया गया।
वामपंथी सरकार के केवल इस आर्थिक घेरेबंदी के दौरान ही 2000 से अधिक लोग मारे गए थे। मरने वालों में छोटे छोटे दुधमुंहे बच्चे भी शामिल थे। मजबूरी में हिन्दू शरणार्थी लोगों को द्वीप से निकलना पड़ा।
कुछ लोगों को वहीं मार दिया गया। मार कर लाशों को समुद्र में ही फेंक दिया गया। सुंदरवन के जंगलों में लाशों को छोड़ दिया गया जिसे खाकर वहाँ के बाघ आदमखोर बन गए।
यह सबकुछ जो हुआ वह जलियांवाला बाग नरसंहार के बराबर या उससे अधिक ही जघन्य था। लेकिन इस मामले को कभी मुख्यधारा की खबरों में जगह नहीं मिली। कभी वामपंथी दलों से इस मुद्दें पर प्रश्न नहीं पूछा गया।
आज भी वही वामपंथी दल, पत्रकार, बुद्धिजीवी हिन्दू शरणार्थियों को नागरिकता देने के खिलाफत कर रहे हैं। आखिर कुछ लोगों के द्वारा लिए गए फैसले की वजह से उनकी जमीन, उनकी मातृभूमि में उनके साथ ही धार्मिक उत्पीड़न होता है तो उसके लिए वो लोग जिम्मेदार कैसे हैं ?
यह वामपंथ की पुरानी आदत है कि दलितों, गरीबों, वंचितों, अल्पसंख्यकों के नाम से खुद को पेश कर गरीबों और दलितों का शोषण किया जाता है। मरीचझापी की घटना सबसे बड़ा उदाहरण है किस तरह वामपंथ भारत में भारतीय मूल के धर्मों से नफरत करता है और उनका नरसंहार चाहता है।